मैं योगेश जाधव (उच्च माध्यमिक शिक्षक, लेखक, कवि) अपने वेबपेज DNYAN SAGAR में आपका स्वागत करता हूं|

Game

 नमस्कार मित्रो ;

            कोई भी कार्य जिनमें नियमों की संरचना हो और जिसको आनन्द प्राप्ति के लिये या कभी-कभी शिक्षा प्रदान करने के लिये किया जाता है, क्रीडा या खेल (game) कहलाता है। खेल की सबसे पहली विशेषता है कि खेल आमोद-प्रमोद है। खेल में मजा आता है। कोई भी ऐसा कार्यकलाप जिससे बच्चों को आनंद मिलता है, खेल है।

              खेल बच्चे की स्वाभाविक क्रिया है। भिन्न-भिन्न आयु वर्ग के बच्चे विभिन्न प्रकार के खेल खेलते है ये विभिन्न प्रकार के खेल बच्चों के समपूर्ण विकास में सहायक होते हैं। खेलों के प्रकारों में अन्वेषणात्मक, संरचनात्मक, काल्पनिक और नियमबद्ध खेल शामिल हैं। खेलों में सांस्कृतिक विभिन्नताएं भी देखी जाती हैं। खेल से बच्चों का शारीरिक, संज्ञानात्मक, संवेगात्मक, सामाजिक एवम् नैतिक विकास को बढ़ावा मिलता हैं किन्तु अभिभावकों की खेल के प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति एवम् क्रियाकलाप ने बुरी तरह प्रभावित किया हैं। अतः यह अनिवार्य हैं कि शिक्षक और माता-पिता खेल के महत्त्व को समझें।

                 खेल के बारे में आम धारणा यह है कि यह काम का विलोम है। खेल एक ऐसी स्थिति है जिसमें लोग कोई उपयोगी या विशिष्ट काम नहीं कर रहे होते हैं। खेल के बारे में एक सोच यह भी है कि यह आनन्ददायक, मुक्त और अनायास होता है। यह दृष्टिकोण छोटे बच्चे के विकास में खेल के महत्त्व को नकारता है। कई सालों से कई मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तकार बच्चे के विकास में खेल के महत्त्व पर जोर देने लगे हैं। इन्होंने खेल के अनेक पक्षों पर बल दिया है और बताया है कि खेल कैसे मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करता है। मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में खेल अतीत से मुक्त और पुर्नजीवन का रास्ता है। यह खोज, पहल और स्वतंत्रता है।

              खेल से मनुष्य की मनोवैज्ञानिक जरूरतें पूरी होती हैं। तथा वह मनुष्य को सामाजिक कौशलों के विकास का भी अवसर देता है। पियाजे के अनुसार खेल बच्चों की मानसिक क्षमताओं के विकास में भी एक बड़ी भूमिका निभाते हैं। पहले चरण में बच्चा वस्तुओं के साथ संवेदन प्राप्त करने व कार्य संचालन करने का प्रयास करता है। दूसरे चरण में बच्चा कल्पनाओं को रूप देने के लिए वस्तुओं को किसी के प्रतीक के रूप में उपयोग करने लगता है। अन्तिम चरण में (7 से 11 वर्ष) काल्पनिक भूमिकाओं के खेलों की तुलना में बच्चा नियमबद्ध खेल (या क्रीड़ाओं) में संलग्न रहता है। खेलों से तार्किक क्षमता व स्कूल सम्बन्धी कौशलों को विकसित होने में मदद मिलती है।

              वाइगोत्स्की उसके विचारों से प्रेरित शोधकर्त्ता यह नहीं मानते कि खेलों में उम्र के साथ सहज परिवर्तन हो जाता है। वे वयस्कों व सामाजिक सन्दर्भों से मिलने वाले मार्गदर्शन को इसके लिए महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार बच्चों के खेल के स्तर को वयस्क बढ़ा सकते हैं। वाइगोत्स्की के अनुसार - जटिल भूमिकाओं वाले खेलों में बच्चों का अपने व्यवहार को संगठित करने का बेहतर व सुरक्षित अवसर मिलता है जो वास्तविक स्थितियों में नहीं मिलता। इस तरह खेल बच्चे के लिए निकट विकास का क्षेत्र बनाते है। स्कूली स्थिति की तुलना में खेल के दौरान बच्चों की एकाग्रता, स्मृति आदि उच्चतर स्तर पर काम करती हैं। खेल में बच्चे की नई विकासमान दक्षताएँ पहले उभर कर आती हैं। खेल नाटकों में बच्चा अपने आन्तरिक विचार के अनुसार काम करता है और मूर्त रूप में दिखने वाली चीज़ों से बँधा नहीं रहता। यहीं से उसमें अमूर्त चिन्तन व विचार करने की तैयारी होने लगती है। यह लेखन की भी तैयारी होती है क्योंकि लिखित रूप में शब्द वस्तु जैसा नहीं होता, उसके विचार का प्रतीक होता है।

                 जितनी उम्र तक खेल में जटिल और विस्तृत भूमिकाओं व भाषा का प्रयोग होता है वह बच्चे के विकास के लिए एक प्रमुख गतिविधि बना रहता है। यह स्थिति 10-11 साल तक के बच्चों में कम रह सकती है। धीरे-धीरे इसका महत्त्व कम होने लगता है। शिक्षक बच्चों को खेलने का पर्याप्त समय व साधन देकर विषयों का सुझाव देकर, झगड़ों का समाधान करके खेल को और समृद्ध बना सकते हैं।

              पारटेल और अन्य सिद्धान्तकार खेल को सामाजिक आदान-प्रदान के एक रूप की तरह देखते हैं जो सहपाठियों के साथ सहयोगी कार्यों में संलग्न होने की बच्चे की विकसित होती हुई क्षमता को उत्तम भी बनाता है और प्रतिबिम्बित भी करता है। खेल के आरंभिक चरणों में सहपाठियों के साथ आदान-प्रदान लगभग नहीं या बहुत थोड़ा होता है और उस समय सामाजिक कौशलों के प्रयोग में असमर्थता भी दिखती है। आगे चलकर दूसरे के पक्ष से देखने की क्षमता, विभिन्न भूमिकाओं में समन्वय (जैसे एक माँ, एक बच्चा), खेल की विषयवस्तु के बारे में बातचीत और झगड़ों को सुलझाने की सामर्थ्य का विकास होता हुआ दिखाई देता है। खेल में कल्पित और नाटकीय स्थितियां सामान्यतः सामाजिक आदान-प्रदान की अधिक परिपक्व विधियाँ मानी जाती हैं। कुछ शोधकर्ताओं ने धक्का-मुक्की वाले खेलों को भी सामाजिक दृष्टिकोण से देखा है। धक्का-मुक्की के अन्तर्गत सब तरह के कुश्ती और 'पकड़ो तो जाने' कोटि के खेल शामिल किये जा सकते हैं। सामाजिक खेलों की तरह धक्का-मुक्की के खेलों में भी भूमिकाएं होती हैं।

             बच्चे जिज्ञासु प्रकृति के होते हैं। खेलते हुए बच्चों को वस्तुएँ छूने, उन्हें ध्यान से देखने और आसपास के वातावरण की छानबीन करने का मौका मिलता है और इससे उन्हें अपने मन में उठते हुए अनेक प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं। खेल क्रियाओं के माध्यम से वे आम घटनाओं के घटित होने के कारण भी समझने लगते हैं। बच्चों को इच्छानुसार खेलने के अवसर देने से हम उनकी सीखने में मदद करते हैं। खेल बच्चों को खोज करने और उसके द्वारा स्वयं सीखने का अवसर प्राप्त होता है। खोज का अर्थ है घटनाओं और वस्तुओं के बारे में स्वयं पता लगाना।

             खेल में बालिका को अपनी रूचि के अनुसार क्रियाएँ चुनने की स्वतंत्रता होती है इस कारण वह ऐसे खेल चुनती है जो उसके लिए न तो बहुत सरल हों न ही बहुत कठिन परन्तु चुनौतीपूर्ण हों। इस प्रकार वह उन चीजों को सीखती है जिन्हें सीखने के लिए वह तैयार होती हैं। इस प्रकार सीखने की प्रक्रिया बोझ न बनकर आनंददायक हो जाती है। साथ ही साथ बच्चे खेल में क्रियाकलाप द्वारा सीखते हैं। ऐसा करने से संकल्पनाओं को अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है। यदि बच्चों को किसी संकल्पना के बारे में केवल मौखिक रूप में बताया जाए और स्वयं करने को मौका नहीं दिया जाए तो वह उसे इतनी अच्छी तरह नहीं समझ पाएंगे।

               खेल में बच्चे कल्पना द्वारा अलग-अलग भूमिकाएँ निभाते हैं। ऐसा करते हुए उनकी बुद्धि और व्यवहार उसी व्यक्ति के अनुसार होता है जिनकी वह भूमिका कर रहे हैं। इस कारण वे उन व्यक्तियों के विचार और भावनाओं को भी प्रदर्शित करते हैं।

               नाटक करना बच्चों के खेल का एक अभिन्न हिस्सा है। खेल में बालिका वास्तविकता से कट और बहुत कुछ सृजनात्मक करती है। एक टूटी प्लेट तीन वर्षीय बालिका के लिए टेबल बन जाती है और एक दस वर्षीय बालक के लिए अंतरिक्ष यान। माचिस के डिब्बों की पंक्ति रेलगाड़ी बन जाती है और इस रेलगाड़ी से खेलते हुए बच्चे जंगल से गुजरने नदी पार करने और डकैतों से लड़ने का नाटक करते हैं। आप यह देखकर हैरान हो जाएंगे कि रेल पटरी पर न चल सड़क पर ही चल रही है। यह आवश्यक नहीं है कि खेल यथार्थ ही दर्शाए। खेल कल्पना शक्ति को विकसित करता है और यह बच्चों को दैनिक स्थितियों से जूझने में मदद करता है।

              बच्चे खेल-खेल में बोलना सीख जाते हैं। यह तो स्पष्ट है कि भाषा जानने के लिए उनका भाषा को सुन पाना और बोल पाना आवश्यक है। पालनकर्ता के साथ विनोदशील क्रियाओं में बच्ची को भाषा सुनने के बहुत अवसर मिलते हैं जो उसे बोलने के लिए प्रेरित करते हैं। जब बालिका करीब नौ महीने की होती है तब वह ‘‘गा गा गा‘‘, ‘‘बे बे बे‘‘, ‘‘मा मा मा‘‘, ‘‘मम मम‘‘, जैसे कई स्वर निकालती है। इनमें से कुछ वयस्कों की भाषा की शुरुआत हैं। इस अंतः क्रिया के दौरान बालिका विभिन्न ध्वनियों के बीच बोलना सीखती है। यह क्षमता उसे बाद में ‘‘अब्बा‘‘ और ‘‘अम्मा‘‘ जैसे शब्दों में भेद करने मदद करती है और वह उन्हें अलग-अलग शब्दों के रूप में पहचान पाती है।

                बच्चे चौकोर, गोल, सीधी और वक्र रेखा जैसी विभिन्न आकृतियों को भी समझने लगते हैं जो बाद में उन्हें भिन्न अक्षरों को पहचानने में मदद करते हैं। खेलते हुए बच्चे यह देखते हैं कि काला और लाल वृत्त या छोटा और बड़ा वृत्त सभी गोलाकार हैं। इससे उन्हें समझने में मदद मिलेगी कि ‘क‘ अक्षर ‘क‘ ही रहता है चाहें वह शब्द के शुरू में हो या अंत में। खेल में वह पहले और बाद, बाएँ और दाएँ, ऊपर और नीचे जैसी संकल्पनाओं का अर्थ सीखती है जो कि लिखना और पढ़ना सीखने के लिए अति आवश्यक हैं। आपने यह देखा कि खेल क्रियात्मक विकास में सहायक होते हैं जो कि लिखना सीखने के लिए आवश्यक होता है।

                 हम जानते हैं कि बच्चे सहजता से वही सीखते हैं जिनमें उनकी रूचि होती है। यह बात लिखना और पढ़ना सीखने के लिए भी सत्य है। कहानियाँ सुनने से बच्चों में स्वयं उन्हें पढ़ने के लिए इच्छा जाग्रत होगी और वह पढ़ने और लिखने के लिए प्रेरित होंगे। अगर बालिका को लिखना नहीं आता और पालनकर्ता उस पर लिखने के लिए दबाव डालती है तो सम्भवतः लिखना सीखने की प्रक्रिया को यदि खेल बना दिया जाए जिसमें बालिका जमीन पर लिखे हुए ‘क‘ पर छोटे-छोटे पत्थर रखे, उसकी रूपरेखा पर चले या ‘क‘ अक्षर के बिन्दुओं को जोड़ कर ‘क‘ लिखे तो वह धीरे-धीरे ‘क‘ की रूपरेखा से परिचित हो जाएगी। इस प्रकार उसे आनन्द भी आएगा और वह बिना दबाव के लिखना सीख जाएगी।

             जब माँ शिशु को नहलाती है, कपड़े पहनाती है, सुलाती है और उसकी अन्य सभी आवश्यकताओं का ध्यान रखती है तो इन अंतःक्रियाओं के दौरान बालिका माँ को पहचानने लगती है। उसका माँ से लगाव भी बढ़ता है। यह शिशु का पहला सामाजिक संबंध है, जिसका उसके भावी संबंधों पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है।

             जीवन के प्रारंभिक वर्षों में बच्ची अपने हाथ-पैरों से तथा आसपास की वस्तुओं से खेलती है। इससे शिशु को यह पता चलता है कि उसका शरीर आसपास की वस्तुओं से अलग है। ऐसा अनुभवों के द्वारा उसकी अपने बारे में धारणा विकसित होती है। वह यह समझने लगती है कि रोने पर माँ उसके पास आएगी, जब वह हँसेगी तो माँ भी हँसेगी और उसे गोद में उठा लेगी। जैसे-जैसे बालिका बड़ी होती है वह अन्य बच्चों के साथ खेलती है। उनके साथ खेलते हुए आपस में चीजें बाँटना, नियमों का पालन करना, अपनी बारी की प्रतीक्षा करना सीखती है। इस प्रकार वह अन्य लोगों के दृष्टिकोण को ध्यान में रखना और उनको महत्त्व देना भी सीखती है।

              खेल क्रियाएँ बच्चों को हर्ष उल्लास, क्रोध, भय और दुःख व्यक्त करने का अवसर प्रदान करती हैं। खेल में कुछ भी मनचाहा करने की छूट होती है बशर्तें कि उससे किसी को हानि न पहुँचे। खेल उन भावनाओं और संवेगों को व्यक्त करने का मौका देता है जो अन्य स्थितियों में अभिव्यक्त नहीं किए जा सकते। उदाहरणतः खेल में पिता की भूमिका का अभिनय करते हुए बालिका दूसरे बच्चे को अपनी आज्ञा का पालन करने के लिए कह सकती है। ऐसा वह अन्य स्थितियों में शायद न कर सके। लड़ाई का दृश्य खेलते समय वह जोर से चिल्ला सकती है, वस्तुएँ इधर-उधर पटक सकती है जिसकी अनुमति उसे आमतौर पर नहीं मिलती। खेल द्वारा अव्यक्त भावनाएँ उभर कर सामने आती हैं। इसीलिए खेल उन बच्चों के लिए उपचार या चिकित्सा है जो परिस्थिति के अनुसार सामान्य भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं दर्शाते।

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